शनिवार, 22 मई 2010

कबीर भोजपुरी के आदिकवि


(आगरा में शनिवार से विश्व भोजपुरी सम्मेलन होने जा रहा है। दुनिया भर के तमाम देशों से और देश के कोने-कोने से भोजपुरी के विद्वान साधक ताज के शहर में आ डटे हैं। इस मौके पर हिंदी और भोजपुरी के बारे में मशहूर साहित्यकार और हिंदी के अप्रतिम विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार जानकर आप को अच्छा महसूस होगा। 1976 में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में उन्होंने भोजपुरी में जो भाषण दिया था, उसके अंश यहां हिंदी में दिये जा रहे हैं)



कबीरदास भोजपुरी के आदि कवि थे। उन्होंने कहा है, जो रहे करवा त निकंसे टोंटी। लोटे में पानी होगा, तभी तो टोंटी से निकलेगा। यहां तो एक बूंद भी पानी नहीं है। हम सोचते थे कि भोजपुरी अपनी मातृभाषा है, इसमें लिखना आसान होगा लेकिन जिस भाषा में हम रोज बोलते हैं, लगता है उसमें लिखना कठिन काम है। किसी भी भाषा में लेखन के लिए कुछ साधना की जरूरत होती है, कुछ मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। मेरे अंदर तो ऐसा कुछ भी नहीं है।

भोजपुरी बहुत शक्तिशाली बोली है। लोकसाहित्य का ऐसा भंडार कहीं और नहीं दिखता। मुहावरे, लोकोक्तियां और व्यंग्य-विनोद का तो यह खजाना है। इसे बोलने वालों की संख्या भी विशाल है। पांच करोड़ से भी ज्यादा। बहुत कम भाषाएं हैं, जो इतने लोगों द्वारा बोली जाती हैं। भोजपुरियों में अपनी भाषा का गर्व भी बहुत है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ऐसा भाषा प्रेम उन्होंने कहीं और नहीं देखा। भोजपुरीभाषी हमेशा देश की अखंडता की बात सोचता है। इसके लिए वह सर्वस्व नयोछावर करने को भी तत्पर रहता है। वह अपने घर में भोजपुरी बोलता है, अपनी भाषा में कविता भी लिखता है लेकिन अलग रहने की बात कभी नहीं करता। हमारी सार्वदेसिक भाषा हिंदी को सजाने-संवारने में भी भोजपुरियों का भारी योगदान रहा है। सदल मिश्र और भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अनेक बड़े-बड़े रचनाकार भोजपुरी क्षेत्र से संबंधित रहे हैं। अपनी बोली से प्रेम के बावजूद इन लोगों ने हिंदी को संवारने में अपना जीवन लगा दिया।

पुराने जमाने से देश में दो तरह की भाषाओं का प्रयोग होता आया है। एक लोकभाषा और दूसरी संस्कृत भाषा। कई बार लोकभाषा में अच्छा साहित्य रचा गया। अब बहुत कम बचा है, काफी कुछ नष्ट हो गया है। बौद्ध और जैन धर्म का प्रचुर साहित्य लोकभाषा में ही लिखा गया। पालि में अकूत साहित्य भरा पड़ा है। मुझे लगता है कि वह भोजपुरी का ही प्राचीन रूप है। जब तक बात धार्मिक उपदेश की, प्रेम की रही, आसानी से काम चलता रहा पर जब दर्शन, तर्कशास्त्र जैसे गंभीर विषयों की बात आयी तो फटाफट संस्कृत में लिखा जाने लगा। आधुनिक हिंदी भी पहले लोकभाषा के रूप में ही सामने आयी। लेकिन जैसे-जैसे उसमें लोकभाषा के तत्व कम होते जा रहे हैं, वह भी संस्कृत के पद पर बैठती जा रही है। अभी भी उसमें संस्कृत जैसा कसाव नहीं आया है मगर आ जायेगा। जहां तक सूक्ष्म चिंतन-मनन मूलक साहित्य की बात है, हिंदी निश्चित रूप से सार्वदेसिक भाषा का रूप ले चुकी है परंतु जहां तक रागात्मक अभिव्यंजना का प्रश्न है, हिंदी जन-जीवन से दूर होती जा रही है। एक तरह से बौद्धिक कसरत बढ़ती जा रही है। इसकी प्रतिक्रिया में हर बोली के प्रतिभावान साहित्यकार जनभाषा की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। आंचलिकता के नाम पर खिचड़ी भी पकायी जा रही है। यह अकारण नहीं हो रहा है, इतिहास विधाता के निर्देश पर हो रहा है।

विशाल हिंदीभाषाभाषी क्षेत्र में अनेक बोलियां बोली जाती हैं। ब्रजभाषा का साहित्य बहुत समृद्ध रहा है। अवधी, राजस्थानी की अपनी परंपरा रही है। भोजपुरी की साहित्यिक परंपरा भी कम पुरानी नहीं है। हिंदी सबको अपना मानकर चलती है। चाहे राष्ट्रभाषा कहें या राजभाषा या संपर्क भाषा, संविधान बनाने वालों ने हिंदी को सार्वदेसिक भाषा के रूप में चुना लेकिन बहुत से लोग इसे मानने को तैयार नहीं। वे चाहते हैं कि यह काम अंग्रेजी करती रहे। पहले थोड़ी शर्म थी पर अब तो लोग खुलकर कहने लगे हैं कि हिंदी नहीं अंग्रेजी ही संपर्क भाषा रहनी चाहिए। लेकिन कठिनाई यह है कि अंग्रेजी के साथ देश का आत्म सम्मान जुड़ नहीं पाता। इसलिए चलेगी तो हिंदी ही।

कोशिश यह भी हो रही है कि हिंदी की शक्ति कम की जाय। हिंदी के अंतर्गत आने वाली बोलियों में अलगाव के बीच बोने के प्रयास भी हो रहे हैं पर वे सफल नहीं होंगे। अलग-अलग बोलियों में भी बेहतर साहित्य लिखा जाता रहेगा और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान भी मिलेगा। अगर भोजपुरी बोलने वालों को कुछ अधिक सुख-सुविधा, मान-सम्मान मिले तो इससे हिंदी को कोई आपत्ति नहीं होगी। भोजपुरी को भी हिंदी से प्रतिस्पर्धा की बात मन में नहीं लानी चाहिए। हमें हिंदी और भोजपुरी को एक ही समझकर काम करना चाहिए। दोनों को दो मानने पर झंझट होगी। हिंदी में लिखने वाले को भी नमन और भोजपुरी में लिखने वाले को भी। भगवान सबका कल्याण करे।

Posted by डा.सुभाष राय
Post Taken By Bhadas Blog

सोमवार, 10 मई 2010

बीबीसी हिंदी की जन्म कथा


नौ मई 1940. डेली टेलीग्राफ़ में एक छोटी सी ख़बर छपी जिसका शीर्षक था-

‘बीबीसी की नीति में बदलाव-बीबीसी अब हिंदुस्तानी में प्रसारण करेगी.’

ख़बर में बताया गया कि इस नई दैनिक सेवा का प्रसारण शॉर्टवेव पर जल्द ही शुरू होगा. ख़बर यह भी थी कि लॉयनल फ़ील्डिंग, जो 1935 में बीबीसी छोड़कर इंडियन गवरमेंट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस के पहले कंट्रोलर बने थे, हाल में ऑल इंडिया रेडियो से त्यागपत्र देकर वापस ब्रॉडकास्टिंग हाऊस पहुँच गए हैं.
लेकिन लॉयनल फ़ील्डिंग ने लंदन जाने से कई महीने पहले, 25 दिसंबर 1939 के दिन एक महत्वपूर्ण पत्र लिखा था. यह पत्र ऑल इंडिया रेडियो के बंबई स्टेशन में ज़ेड. ए. बुख़ारी के हाथ पहुँचा. ‘माई डियर बुख़ारी’- संबोधन में एक तरह की अनौपचारिकता थी. इसकी एक वजह यह थी कि अपने छात्र जीवन के तुरंत बाद बुख़ारी ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय भाषाएँ सिखाने वाले विभाग में उर्दू के ‘मुंशी’ हो गए थे और उस ज़माने में उनके छात्रों में से एक लॉयनल फ़ील्डन भी थे.
फ़ील्डन ने लिखा- ‘अब जब आपने सूचना मंत्रालय का ऑफर स्वीकार कर लिया है, मैं आपको पिछले दो सालों में बंबई स्टेशन का काम इतने सुचारू रूप से संभालने के लिए बधाई देना चाहूँगा. बंबई ही क्यों, 1935 से अब तक आपने इस सेवा के लिए जो कुछ किया है वह प्रशंसा के योग्य है. आपको अपने नए काम में भी सफलता मिले, इसके लिए मेरी शुभकामनाएँ.’

बुख़ारी साहब को इस समय शुभकामनाओं की ज़रूरत भी थी हालाँकि चुनौतियों का मुक़ाबला करने में उन्हें मज़ा भी आता था. दो साल पहले जब उन्हें बंबई स्टेशन भेजा गया था तो शायद किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे मतभेदों और निष्क्रियता की वजह से गिरती साख़ वाले इस केंद्र को सुधार पाएँगे. मगर उन्होंने यह भी कर दिखाया.
एक बड़ी चुनौती

इससे पहले वे ऑल इंडिया रेडियो के दिल्ली केंद्र पर प्रोग्राम निदशक की हैसियत से अपनी योग्यता का परिचय दे चुके थे. और अब उनके सामने चुनौती थी. 19 जनवरी 1940 को बीबीसी की बोर्ड मीटिंग के बाद आधे घंटे का हिंदुस्तानी प्रसारण शुरू करने का फ़ैसला हुआ जिसकी ज़िम्मेदारी ज़ेड.ए. बुख़ारी को सौंपी गई.
बुख़ारी दिल ही दिल में जानते थे कि ‘ये आग का दरिया है और डूब के जाना है’. बीबीसी के पहले ‘प्रमुख हिंदुस्तानी सलाहकार’ के रूप में उन्हें कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी. लेकिन उनके पास दो मज़बूत हथियार थे- निडर मगर कूटनीतिक तरीक़े से अपने विचार व्यक्त करने की हिम्मत और अँग्रेज़ी ज़बान की लच्छेदारी.

‘एक भारतीय होने के नाते अगर मैं यह कहूँ कि मेरे विचार में भारत का भी कुछ महत्व है तो उम्मीद है आप मुझे मुआफ़ करेंगे. पर मैं समझता हूँ कि प्रचार के हर इदारे में अब तक इस महत्ता की उपेक्षा की गई लगती है. भारत न सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्य में सबसे बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि साम्राज्य में सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह भी बना हुआ है.

न सिर्फ़ बर्लिन, बल्कि रोम और टोक्यो भी भारत के लिए हिंदी और अँग्रेज़ी में दैनिक प्रसारण का महत्व समझते हैं. बीबीसी आज तक मोटे तौर पर अपने अधिकारियों की भेजी रिपोर्टों से दिशा निर्देश पाती रही है.’ ये शब्द बुख़ारी साहब ने 12 अक्तूबर 1940 के अपने एक ख़त में लिखे जिसका उद्देश्य लंदन स्थित ब्रॉडकास्टिंग हाऊस में बैठे अफ़सरों को यह समझाना था कि भारतीय श्रोता के मन और ज़रूरतों को समझने के लिए परंपरागत ख़ुफ़िया एजंसियों से अलग, एक स्वतंत्र श्रोता अनुसंधान विभाग स्थापित करने की ज़रूरत क्यों है.
इस काम के लिए उन्होंने तीन हज़ार पाऊँड के ख़र्चे का प्रस्ताव रखा था. ‘मैं इस तकलीफ़देह तथ्य से भी अवगत हूं कि इंगलैंड के पास भारत के नाम पर देने के लिए और सब कुछ है सिवाय पैसे के.’ यह कटाक्ष उन्होंने अपने एक और मेमो में किया.

इसमें कोई शक नहीं कि बीबीसी हिंदुस्तानी सर्विस का जन्म इस उद्देश्य से हुआ था कि विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के पक्ष का प्रचार किया जाए. उस युद्ध में ब्रितानी फ़ौजों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले असंख्य भारतीय सैनिक थे. उनकी हौसला अफ़ज़ाई भी ज़रूरी थी.
आज़ादी का इंतज़ार

फिर यह वह समय था जब भारत में लोगों ने आज़ादी की घड़ी के दिन गिनना शुरू कर दिया था. जर्मनी, जापान और ब्रिटेन में से कौन बड़ा दुश्मन है- इस प्रश्न पर मत विभाजित था. 22 अप्रैल 1940 को लायनल फ़ील्डिंग ने अपने मेमो में कहा-

‘मैं चाहता हूँ कि बीबीसी का हिंदुस्तानी प्रोग्राम ग्रीनिच मान समय के हिसाब से दो बजे शुरू (भारत में शाम साढ़े सात बजे) हो पर हर हालत में ढाई बजे तक ख़त्म हो जाए क्योंकि जर्मनी के हिंदुस्तानी प्रसारण ढाई बजे शुरू होता है. अगर हमारे प्रसारण और जर्मन प्रसारण के बीच ख़ाली वक्त बचेगा तो जर्मनी को हमारे प्रसारण पर फ़ालतू की टीका टिप्पणी करने का मौक़ा मिल जाएगा.’

बुख़ारी साहब किसी मुग़ालते में नहीं थे. उन्हें अच्छी तरह पता था कि इस सेवा का उद्देश्य जर्मन प्रॉपेगैंडा का मुँहतोड़ जवाब देना है. लेकिन प्रचार के भी कुछ उसूल होते हैं. प्रॉपेगैंडा के बारे में उन्होंने लिखा-

‘प्रॉपेगैंडा मूल रूप से एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो डर, लालच, नफ़रत, महत्वाकाँक्षा जैसी भावनाओं के साथ खेलती है. अगर हम जनमत को बदलना चाहते हैं तो हमें सावधानी बरतते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा संदेश उन लोगों के उपयुक्त हो जिन तक हम उसे पहुँचाना चाहते हैं. इस वक़्त एक आम भारतीय को लगता है कि इस लड़ाई से उसका कोई मतलब नहीं है, उसे यह भी लगता है कि ब्रिटन इस समय कमज़ोर है और भारतीयों में यह भावना प्रबल है कि भारत को स्वाधीन होना चाहिए.
बुख़ारी साहब का तर्क था कि जर्मन प्रॉपेगैंडा ब्रिटन विरोधी भावनाओं को तो भड़काता है लेकिन अभी तक उसका ध्यान इस तरफ़ नहीं गया कि हिटलर की दुनिया में आज़ाद भारत की तस्वीर क्या होगी.

उन्होंने प्रस्ताव रखा कि ख़बरों और जर्मनी की क्रूरता के उदाहरणों के अलावा हिंदुस्तानी कार्यक्रमों में ब्रितानी संस्कृति, कविता और दर्शन की चर्चा के साथ-साथ भारतीयों की उपलब्धियों पर फ़ोकस हो जैसे ब्रिटन में पढ़ने वाले छात्र, 1914-1918 की लड़ाई में ब्रितानी फ़ौज की तरफ़ से लड़ने वाले भारतीय सिपाहियों की तारीफ़, लड़ाई के बाद विकसित होने वाले भारतीय उद्योगों की चर्चा, जाने माने भारतीयों की तारीफ़ वग़ैरह.
प्रचार हो पर नफ़ासत से

सूची काफ़ी लंबी थी जिसे पढ़कर साफ़ साफ़ समझ आता है कि बुख़ारी भारतीय मानस और ब्रिटिश हुकूमत के इरादों, दोनों को अच्छी तरह समझते थे. इसलिए वे चाहते थे कि प्रचार हो तो ज़रा नफ़ासत से हो. भौंडा ना हो.

एक नोट में उन्होंने कहा- ‘और हमें ब्रिटिश साम्राज्य में आज़ादी और वैयक्तिक स्वतंत्रता जैसे विचारों का ज़िक्र करने से बचना चाहिए क्योंकि, यह बात सही है या ग़लत, भारतीय जनता को लगता है कि राजनीतिक आज़ादी या वैयक्तिक स्वतंत्रता उसके हिस्से में नहीं आई है.’

30 मार्च 1940 को बुख़ारी साहब ने हिंदुस्तानी सर्विस की भाषा पर अपने विचार लिख भेजे. हिंदुस्तानी, उनके विचार में उर्दू मिश्रित वो भाषा थी जो भारत का आम आदमी बोलता है. इसलिए यह प्रस्ताव रखा कि जहाँ तक बीबीसी के प्रसारक का सवाल है वह आम आदमी की भाषा में ही बोलेगा. हाँ, मामला वहाँ मुश्किल हो जाएगा जब बाहर के लोगों को वार्ता देने के लिए बुलाया जाएगा.

भारत के तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने लिखा- ‘भारत की लोकतांत्रिक स्वतंत्रता (जिसका स्वाभाविक निष्कर्ष है कि भारत में बहुसंख्य का शासन होगा) की संभावनाओं के चलते, बहुसंख्यक हिंदुओं ने अपनी भाषा से अरबी फारसी के शब्दों का तिरस्कार शुरू कर दिया है जो मुसलमानों ने भारत को दिए थे.
दूसरी तरफ़ मुसलमानों ने भी अपनी भाषा में अरबी और फ़ारसी के मुश्किल शब्दों को लाना शुरू कर दिया है. पहले की उर्दू में हम कहते थे- मौसम ख़राब है. लेकिन काँग्रेस और मुस्लिम लीग की आधुनिक भाषा में कहा जाएगा- मौसम की परिस्थितियाँ विपरीत हैं.’

वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए और आलोचना से बचने के लिए बुख़ारी ने सुझाव दिया कि हिंदुस्तानी प्रसारण में दोनों ख़ेमों के लोगों को बराबरी से आमंत्रित किया जाए. लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाए कि संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिखी गई वार्ता को हिंदी कहा जाए न कि हिंदुस्तानी. इसी तरह जिसमें अरबी फ़ारसी के भारी शब्द हों, उसे उर्दू की वार्ता कहना बेहतर होगा न कि हिंदुस्तानी की.
शैली की बात

बुख़ारी ने चुटकी लेते हुए लिखा-‘हम बर्नार्ड शॉ से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे अपनी शैली बदल दें. उम्मीद है कि कुछ ऐसे लोग भी हमारे लिए लिखेंगे जिनकी भाषा हिंदुस्तानी होगी, पर ज़ाहिर है वे बर्नार्ड शॉ नहीं होंगे. वे बुख़ारी जैसे लोग होंगे.’

11 मई 1940 को बीबीसी की हिंदुस्तानी सेवा ने दस मिनट के समाचार बुलिटिन के साथ अपना पहला प्रसारण किया. जून 1941 में जाकर हिंदुस्तानी सेवा को आधा घंटा मिला. पर बुख़ारी इतने से संतुष्ट नहीं थे. 22 मई 1941 को उन्होंने बीबीसी के एम्पायर सर्विस निदेशक आर. ए. रैन्डॉल के नाम एक लंबा ख़त लिखा-

‘अगर बीबीसी स्वीकार करती है कि इस युद्ध में भारतीय जनमत की महत्ता है तो उसे मौजूदा हिंदुस्तानी प्रसारण के अलावा भारतीय समय के अनुसार सुबह आठ बजे भी हिंदुस्तानी समाचार शुरू करना चाहिए.’

सुबह आठ बजे का समय तो तब नहीं मिल पाया लेकिन 1943 तक आते-आते हिंदुस्तानी सेवा की एक से ज़्यादा सभाएं हो गई. बुखारी 1945 तक बीबीसी की हिंदुस्तानी सर्विस के संचालक बने रहे और जब तक रहे, प्रसारण का समय बढ़ाने की उनकी कोशिशें जारी रहीं. 1947 में विभाजन के बाद, यही ज़ुल्फ़िकार अली बुख़ारी पाकिस्तान रेडियो के पहले महानिदेशक चुने गए.

शुक्रवार, 7 मई 2010

'निरुपमा के पुरुष मित्र पर केस दर्ज हो'

झारखंड में कोदरमा की एक अदालत ने पुलिस को पत्रकार निरुपमा पाठक की संदेहास्पद स्थिति में हुई मौत के मामले में उनके पुरुष मित्र प्रियाभान्शु रंजन के खिलाफ बलात्कार और यौन शोषण के मुकदमे दर्ज करने के निर्देश दिए हैं.

कोडरमा के मुख्य दंडाधिकारी एमके अग्रवाल ने ये निर्देश निरुपमा की मां की अर्ज़ी पर दिए हैं. निरुपमा की मां सुधा पाठक फ़िलहाल न्यायिक हिरासत में है.

अदालत ने सुधा पाठक को नौ मई से 11 मई तक पैरोल पर रिहा करने का भी आदेश दिया ताकि वो अपनी बेटी के श्राद्ध-कर्म में भाग ले सकें.

अदालत ने प्रियभांशु के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 420 (धोखाधड़ी), 376 (बलात्कार) और 306 (मौत के लिए मजबूर करना) सहित अन्य धाराओं के अंतर्गत मुक़दमा दर्ज करने के लिए निर्देश दिए हैं.

निरुपमा की मां सुधा ने आरोप लगाया है कि प्रियभांशु ने उनकी बेटी को शादी के नाम पर फुसलाकर यौन शोषण किया.

तेईस वर्षीया पत्रकार निरुपमा पाठक दिल्ली के एक समाचार पत्र में काम करतीं थीं. उन्हें 29 अप्रैल को झारखंड में उनके कोडरमा स्थित निवास में मृत पाया गया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार निरुपमा की मौत दम घोंटे जाने से हुई है.
'मजबूर किया गया'

अपनी अर्ज़ी में सुधा ने दावा किया है कि निरुपमा अपनी मौत के समय तीन महीने की गर्भवती थीं और जब प्रियभांशु ने शादी करने से मना कर दिया तो उनकी बेटी ने सामाजिक डर के कारण अपनी जान दे दी.

प्रियभांशु फ़िलहाल दिल्ली में रह रहे हैं और झारखंड पुलिस ने उनसे पूछताछ की है.

इस मामले में पुलिस ने मौत की परिस्थितियों को जानने के लिए निरुपमा के पिता और भाई से भी पूछताछ की है. पुलिस को इस बात का भी संदेह है कि निरुपमा को 'इज़्ज़त के नाम' पर क़त्ल किया गया.

निरुपमा के परिवार वालों का कहना है कि उसने आत्महत्या की है, लेकिन पोस्टमार्टेम रिपोर्ट के अनुसार निरुपमा का गला घोंटा गया.

हालांकि परिवार वालों ने इस बात को स्वीकार किया है कि वे निरुपमा की प्रियाभांशु से शादी के ख़िलाफ़ थे.

मंगलवार, 4 मई 2010

सेक्स लाइफ गांधीजी की


क्या राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी असामान्य सेक्स बीहैवियर वाले अर्द्ध-दमित सेक्स मैनियॉक थे? जी हां, महात्मा गांधी के सेक्स-जीवन को केंद्र बनाकर लिखी गई किताब “गांधीः नैक्ड ऐंबिशन” में एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री के हवाले से ऐसा ही कहा गया है। महात्मा गांधी पर लिखी किताब आते ही विवाद के केंद्र में आ गई है जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उसकी मांग बढ़ गई है। मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स ने पंद्रह साल के अध्ययन और शोध के बाद “गांधीः नैक्ड ऐंबिशन” को किताब का रूप दिया है। रिश्ते को सनसनीख़ेज़ बनाने की कोशिश की गई है। मसलन, जैड ऐडम्स ने लिखा है कि गांधी नग्न होकर लड़कियों और महिलाओं के साथ सोते ही नहीं थे बल्कि उनके साथ बाथरूम में “नग्न स्नान” भी करते थे।
महात्मा गांधी हत्या के साठ साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे मानस-पटल पर किसी संत की तरह उभरते हैं। अब तक बापू की छवि गोल फ्रेम का चश्मा पहने लंगोटधारी बुजुर्ग की रही है जो दो युवा-स्त्रियों को लाठी के रूप में सहारे के लिए इस्तेमाल करता हुआ चलता-फिरता है। ऐडम्स ने किताब में लिखा है कि गांधी ने अपने आश्रमों में इतना कठोर अनुशासन बनाया था कि उनकी छवि 20वीं सदी के धर्मवादी नेताओं जैम्स वॉरेन जोन्स और डेविड कोरेश की तरह बन गई जो अपनी सम्मोहक सेक्स अपील से अनुयायियों को क़रीब-क़रीब ज्यों का त्यों वश में कर लेते थे। ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक महात्मा गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे। किताब के मुताबिक हालांकि अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और सेक्स से जुड़े तत्थों के बारे में आमतौर पर खुल कर लिखते थे. किताब की शुरुआत ही गांधी की उस स्वीकारोक्ति से हुई है जिसमें गांधी ख़ुद लिखा या कहा करते थे कि उनके अंदर सेक्स-ऑब्सेशन का बीजारोपण किशोरावस्था में हुआ और वह बहुत कामुक हो गए थे। 13 साल की उम्र में 12 साल की कस्तूरबा से विवाह होने के बाद गांधी अकसर बेडरूम में होते थे। यहां तक कि उनके पिता कर्मचंद उर्फ कबा गांधी जब मृत्यु-शैया पर पड़े मौत से जूझ रहे थे उस समय किशोर मोहनदास पत्नी कस्तूरबा के साथ अपने बेडरूम में सेक्स का आनंद ले रहे थे।

सीनियर लीडर जेबी कृपलानी और वल्लभभाई पटेल ने गांधी के कामुक व्यवहार के चलते ही उनसे दूरी बना ली। यहां तक कि उनके परिवार के सदस्य और अन्य राजनीतिक साथी भी इससे ख़फ़ा थे। कई लोगों ने गांधी के प्रयोगों के चलते आश्रम छोड़ दिया। ऐडम ने गांधी और उनके क़रीबी लोगों के कथनों का हवाला देकर बापू को अत्यधिक कामुक साबित करने का पूरा प्रयास किया है। किताब में पंचगनी में ब्रह्मचर्य का प्रयोग का भी वर्णन किया है, जहां गांधी की सहयोगी सुशीला नायर गांधी के साथ निर्वस्त्र होकर सोती थीं और उनके साथ निर्वस्त्र होकर नहाती भी थीं। किताब में गांधी के ही वक्तव्य को उद्धरित किया गया है। मसलन इस बारे में गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला निर्वस्त्र मेरे सामने होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं। मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता। मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है। मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ अंतःवस्त्र पहनी होती है।”किताब के ही मुताबिक जब बंगाल में दंगे हो रहे थे गांधी ने 18 साल की मनु को बुलाया और कहा “अगर तुम साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते। आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें।”

ऐडम्स के मुताबिक हत्या के बाद गांधी को महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उन दस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी दरअसल सेक्स मैनियैक थे। कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी और उनके सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच को छुपाती रही है। गांधीजी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सलाह दी गई। सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप ही रहीं.
ऐडम्स के अनुसार सुशीला नायर, मनु और आभा के अलावा बड़ी तादाद में महिलाएं गांधी के क़रीब आईं। कुछ उनकी बेहद ख़ास बन गईं। बंगाली परिवार की विद्वान और ख़ूबसूरत महिला सरलादेवी चौधरी से गांधी का संबंध जगज़ाहिर है। हालांकि गांधी केवल यही कहते रहे कि सरलादेवी उनकी “आध्यात्मिक पत्नी” हैं। गांधी जी डेनमार्क मिशनरी की महिला इस्टर फाइरिंग को प्रेमपत्र लिखते थे। इस्टर जब आश्रम में आती तो बाकी लोगों को जलन होती क्योंकि गांधी उनसे एकांत में बातचीत करते थे। किताब में ब्रिटिश एडमिरल की बेटी मैडलीन स्लैड से गांधी के मधुर रिश्ते का जिक्र किया गया है जो हिंदुस्तान में आकर रहने लगीं और गांधी ने उन्हें मीराबेन का नाम दिया।
जैड दावा करते हैं कि उन्होंने ख़ुद गांधी और उन्हें बेहद क़रीब से जानने वालों की महात्मा के बारे में लिखे गए किताबों और अन्य दस्तावेजों का गहन अध्ययन और शोध किया है। उनके विचारों का जानने के लिए कई साल तक शोध किया। उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे

"उसके गर्भाशय में 10-12 हफ्ते का शिशु भ्रूण था"


निरुपमा की तस्वीर को कम से कम दो-तीन बार ध्यान से ज़रूर देखिएगा....आपको नीरू की इस तस्वीर में कहीं न कहीं अपनी बेटी...बहन...ज़रूर नज़र आएगी....और अगर नहीं आती है तो फिर अपने आप को आइने में दो-चार बार ज़रूर देखिएगा .कि क्या आपमें इंसान होने के कितने लक्षण बचे हैं.
नीरू की गलती थी कि वो सही रास्ते से अपनी मंज़िल पाना चाहती थी...अगर नीरू बिना घरवालों की मर्ज़ी के ये शादी कर लेती तो ज़्यादा से ज़्यादा एक दो साल बाद यही लोग उसे वापस अपना लेते...पर हमारे तथाकथित सभ्य समाज को सीधे और सरल तरीके पसंद ही कहां हैं....हमारी गौरवशाली संस्कृति का दम भरने वाले ठेकेदार अब कहां हैं...और क्या नाम देंगे इसे...
जानता हूं कि अभी भी कई लोग सवाल करेंगे कि क्या गारंटी है कि नीरू ने आत्महत्या नहीं की उसका क़त्ल हुआ है....तो एक बार उसकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट (पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट का लिंक...ज़रूर देखें) पूरा ज़रूर पढ़ें....चलिए आपको बता ही देते हैं सरल भाषा में ये क्या कहती है....

* उसकी श्वसन नली में कंजेशन था....
* उसके दोनो फेफड़ों में भी कंजेशन था...
* ह्रदय के दोनो कोष्ठों में रक्त था...
* उसके लिवर में कंजेशन था....
* उसकी किडनी में कंजेशन था...
* स्प्लीन में कंजेशन था...

मतलब कुल जमा ये कि उसकी मौत दम घुटने से हुई...और ये सामान्य बुद्धि है कि कोई भी अपना गला खुद घोंट कर आत्महत्या नहीं कर सकता है....
लेकिन सबसे दर्दनाक सच सामने लाती है पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की आखिरी लाइन.....

"उसके गर्भाशय में 10-12 हफ्ते का शिशु भ्रूण था"
बहुत से लोग अब इस पर भी उंगलियां उठाएंगे...नाक भौं सिकोड़ेंगे...क्योंकि समाज की सभ्यता का यही तकाज़ा है....किसी को नहीं बख्शेंगे ये लोग....पर मैं केवल ये जानता हूं कि अगर ये हत्या है तो ये दोहरा हत्याकांड है....
क्या कहूं....जिस धर्म...जाति और ईश्वर की ये समाज दुहाई देता है क्या वाकई उसका कोई अस्तित्व भी है....

क्या ये वही लोग हैं जो साल में दो बार 8 दिनों तक नारी शक्ति की पूजा पाठ कर्मकांड कर के नवें दिन कन्याओं के पैर छूते हैं.
माफ करना नीरू हम तुम्हें बचा नहीं पाए...पर क्या अफसोस करें तुम्हारे जैसी हज़ारों नीरू हम खो चुके हैं...शायद खोते भी रहेंगे....
मेरा पुनर्जन्म में कतई यकीन नहीं है...पर मैं जानता हूं एक और नीरू कहीं और जन्म ले चुकी है...उसकी होनी में क्या लिखा है....हक...या मौत

खबरदार करते न्यूज चैनलों में खबर कहां है?


एक झटके में लगा कि महिला आरक्षण को लेकर खबरों की जो संवेदनशीलता हिन्दी न्यूज चैनलों में दिखायी जा रही थी, उसने अपनी टीआरपी के खेल में खबरों की जगह टीआरपी वाले इंटरटेनमेंट चैनलों के सीरियलो की टीआरपी को भी खुद से जोड़ने की नायाब पहल शुरु कर दी है। कुछ इसी तर्ज पर खबरों को कवर करने से लेकर दिखाने का खेल भी न्यूज चैनल खुल्लम खुल्ला अपनाने लगे हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स की कवरेज को लेकर दिल्ली में ओलंपिक एसोसिएशन ने न्यूज चैनलों को आमंत्रित किया। कमोवेश हर न्यूज चैनल के संपादक स्तर के पत्रकार कैमरा टीम के साथ इस बैठक में नजर आये। सभी के पास कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज को लेकर प्लानिंग थी। और सभी सीधे सुरेश कलमाडी से संवाद बनाने में लगे थे।
वहीं माओवादियों के खिलाफ ग्रीन हंट शुरु होने के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी करते हुये कई लोग एकसाथ मंच पर आये। इसमें जानी मानी लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति राय, पूर्व आईएएस और नक्सलियों के बीच काम कर रहे बी डी शर्मा से लेकर मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक सुमित चक्रवर्ती समेत कई क्षेत्रों से जुड़े आधे दर्जन से ज्यादा लोगों ने दिल्ली के फॉरेन प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीबीसी,रायटर्स और सीएनएन जैसे अंतरराष्ट्रीय चैनल और एजेंसियों के पत्रकार मौजूद थे।
सुरेश कलमाडी आज की तारीख में किसी भी न्यूज चैनल के संपादक के लिये सबसे बड़े व्यक्ति हैं। क्योंकि कॉमनवेल्थ के प्रचार प्रसार में मीडिया के हिस्से में करीब पाच सौ करोड़ का विज्ञापन है। और इस पूंजी को पाने के लिये कोई भी न्यूज चैनल अब यह खबर नहीं दिखा सकता है कि कॉमनवेल्थ की तैयारी कमजोर है। य़ा फिर दिल्ली में यमुना की जमीन से लेकर कॉमनवेल्थ के लिये दिल्ली में हजारों हजार पेड़ काटे जा चुके हैं और सिलसिला लगातार जारी भी है। यमुना की जमीन पर जिस तरह कॉमनवेल्थ के लिये कंक्रीट का जंगल खडा किया गया है, उससे सौ साल में सबसे ज्यादा पर्यावरण गर्म होने की स्थिति दिल्ली की है।इस पर भी कोई खबर दिखाना नहीं चाहता क्योंकि उसे डर है कि कहीं कॉमनवेल्थ के प्रचार-प्रसार का विज्ञापन उसकी झोली से ना खिसक जाये। साथ ही वह तमाम कॉरपोरेट कंपनियां, जिनका जुडाव कॉमनवेल्थ गेम्स से है उनको लेकर भी कमाल का प्रेम मीडिया ने दिखाना शुरु कर दिया है। क्योंकि निजी विज्ञापन भी करीब हजार करोड से ज्यादा का है, जिसका इंतजार मीडिया कर रहा है। मीडिया की पूरी नजर इस वक्त करोड़ों रुपए के इन विज्ञापनों पर ऐसी टिकी है कि उसे इसके अलावा कुछ दिखायी नहीं दे रहा।
जाहिर है खबरो को दिखाने के लिये सरकार से लाइसेंस ले कर खड़े हुये न्यूज चैनलो की समूची कतार ही जब खबरों को परिभाषित करने से पहले अपना मुनाफा और मुनाफे पर टिके धंधे को ही देख रही हो तब न्यूज को परिभाषित करने का तरीका भी बदलेगा और देश के हालात पर भी वही नजरिया सर्वमान्य करने की कोशिश होगी जो सरकार की नीति में फिट बैठे। ऐसे में अगर किसी न्यूज चैनल में किसी दुर्घटना या आतंकवादी हमला या फिर ब्लास्ट से इतर कोई भी खबर दिखायी दे जाये तो एक बार उसकी तह में जाकर जरुर देखना चाहिये क्योंकि बिना मुनाफे के कोई खबर खबर बन ही नहीं सकती।